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Friday 26 October 2012

"कुछ ख़याल"



कुछ नज्में लिखने की कोशिश का रही हूँ, आपकी नज़र कर रही हूँ।

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ये गहराती शाम ..... करवट बदलती फिजा....
अंगडाई ले रहा मौसम...!!

तेरी राहों पे टिकी हुयी नज़रें ....
कानों को इंतज़ार तेरे क़दमों की आहटों का.....
वही सिलसिला कई सालों से.....
पर ये क्या ....!!
इन सिलसिलों के दरमियान .....फिजा की इन करवटों और मौसम की ली हुयी अंगड़ाईयों की तरह तुम्हारे दिल को बदलते हुए देखा है मैंने...
महसूस किया है उसकी हर अंगडाई को....
जो अहसास कराती रहती है मुझको तुम्हारे-मेरे...

बीच के बढ़ते हुए फासलों का हर दिन.... और एक बैचेनी सी छा जाती है दिलो-दिमाग पे .... ठीक उसी तरह जिस तरह से शाम गहराते ही बैचेन हो जाती हैं सागर की लहरें ...
बस उसी वक़्त से कोहरा छाने लगता है और धुंधला जाती हैं सब सुनहरी यादें....उन दिनों की,
जब थमता नहीं था सिलसिला तुम्हारे मेरे बीच सवालों-जवाबों का ... थमता नहीं था ख़्वाबों का कारवां..... रुकते नहीं थे कदम साथ चलते हुए कहीं..... और ख़याल तुझे मेरा और मुझे तेरा घेरे रहता था दिन-रात ....
और फिर आँखों से बरस पड़ता है ....सीली ठंडी हवाओं में वो कोहरा ओस बनकर .... उन यादों को भिगो देता है .... जो इन सिलसिलों में खो गयी हैं कहीं .... हाँ सिलसिले तो वही हैं .....!!
बस बदल चुके हैं "मैं और तुम" ... !!
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वक़्त ये भी गुज़र जाएगा.... हर उस लम्हे की तरह ...
जो गुज़र गया .....और छोड़ गया एक कसक सी दिल में ...
कुछ अनछुए अहसासों की, जिन्हें टकटकी लगाए देखते रहे बस और वक़्त ले गया साथ अपने उन अहसासों को भी... जिनकी यादों की टीस आज भी उठती है इस दिल मे.... उस सुनामी की तरह जो पलक झपकते ही तबाह कर जाती है सबकुछ जो पनप रहा है दिल की बगिया में कहीं ....
और फिर उजाड़ और बंज़र सी दिल की उस जमीन पर हवाओं के कुछ थपेड़े आते हैं .. जो अपने सीलेपन में समेटे हुए ले जाते हैं तेरी उन यादों और बातों को कहीं.... जिन्हें वक़्त की रफ़्तार की दौड़ती हुयी तेज़ नज़रों से बचकर चुरा कर रख लिया था अपने पास..... पर वक़्त भी बहुत निष्ठुर है....
दुष्ट ले ही गया आखिर उन्हें मुझसे छीनकर...... जिन यादों के कुछ फूल दिल की बगिया में महकने को मचल उठे थे.....

शायद वक़्त नहीं चाहता था की उसकी रफ़्तार से नज़रे चुराकर मैं उससे चुरा लूं तुम्हे....
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हाँ..........
हाँ,बोल रहे थे तुम और मैं सुन रही थी,
मगर उस बोलने और सुनने के बीच,
मीलों का सफ़र तय कर चुकी थी मैं।

पर जब रुका वो सिलसिला,
तो स्तब्ध सी अपनी ही धडकनों को गिनती,
वहीँ खड़ी थी,शायद शून्य ही चली थी मैं ।

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ह्रदय-कमल मुरझाया सा है,
और तुम पुनः तरकश भर लाये ,
आक्रमण करने को आतुर हो हर क्षण,
हे निष्ठुर तुमको तनिक दया न आये ????

शब्द-शर आघात करें जब,
कोमल ह्रदय छटपटा जाये,
अंतर्मन विचलित हो जाए,
नयन अश्रु-नीर बहायें।।

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हिसाब... (1)

सुनो !!


जानती हूँ मैं.... 
कि हिसाब के बहुत पक्के हो तुम,
पर ये क्या !!
रिश्तों का ही हिसाब कर डाला तुमने तो....
नहीं जानती थी कि प्यार में,
रिश्तों की अदायगी का भी कोई हिसाब होता है ,

अरे हिसाब की तो वैसे ही कच्ची हूँ ना मैं !!
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हिसाब.... (2)

बही-खाते थमा जाते हो...
लम्बे-चौड़े हिसाब के,
थामते हुए उन्हें आत्मा कंप सी जाती है,
दिल पर जमी सुर्ख लाल मिटटी का रंग,
देखते ही उसको....
आँखों में उतर सा जाता है,
निःशब्द अधर थर्राते हैं,
पर कुछ भी कह नहीं पाते हैं,
मौन ही सूचक होता है तब ,
ह्रदय में उठी उस पीड़ा का.....

रिश्तों का हिसाब किया तो तुमने,
बैठकर कुछ इंचों की दूरी से ....
पर इस हिसाब-किताब में
देखो ना!!
दिल मीलों दूर चले गए....

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हाँ ... विस्मृतियों के आकाश में भ्रमण करते तुम,
भूल चुके हो वो क्षण ...
आज भी जो अविस्मृत हैं मेरे लिए ....

उस आकाश से तुम्हे दिखाई दे जाएँ 
कभी यूँही ... 

"विस्मृतियों से तुम्हारे इस प्यार में ,उस आकाश तले ,
हम हो चले हैं नदी के दो किनारे!!"


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कई बार कहा दिल ने मेरे,
तोड़ दे नफरतों के ताले.... 
दिल पे जो लगा रखे हैं... 
पर हर बार तू उन्हें न तोड़ने की
एक नयी वजह दे गया !!


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धुंध में आँख-मिचौली करती,
धीमी गाड़ियों की पार्किंग लाइट्स ...

मंद गति से चल रही है जिंदगी भी ,
आगे कुछ भी नज़र ना आये .....
घनी बस्तियों में कराहती ,
चुभती ठंडी हवा पुरजोर ....
दिल में भी कुछ चुभ सा गया है,
इस बार की सर्दी में है बहुत जोर।। 



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फागुन की अंधड़ भरी बयार,
दस्तक दे रही है,
दरवाजों पे,खिडकियों पे !!
मेरे सवालों को न उड़ा ले जाए,
ये कहीं अपने साथ !!
कि कोई उलझा- उलझा सा रहता है,
आजकल उनमें,
धागों की तरह ..... !!


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क्यूँ !!

अगर गुड़ियों के साथ खेली है वो,
तो इसका मतलब ये तो नहीं,
कि वो भी एक गुडिया है ...... !!
मौन,
बेजान ..... !!

अरे ऐसा कैसे समझ लिया तुमने ????

वो तो शक्ति है,
सहनशीलता की मूर्ति है,
सृष्टि की ऐसी कल्पना है,
जिसके बिना तुम्हारा अस्तित्व शून्य है,

हाँ !!

उसे भी ये अहंकार है !!



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"पगडंडियाँ"

क़दमों की आहटें सुन फिजा महक जाती है .....
कदम बढ़ते जाते हैं और "पगडंडियाँ" बन जाती हैं .....


http://www.facebook.com/#!/pages/Pagdandiyan/367545386665536

छोर दिखे न उसका कोई,
डग-मग सी वो चलती जाए|
कहीं संभलकर सीधी चल दे,
जैसे रस्ता हमें दिखाए|
देह तोडती कहीं-कहीं पे,
टेढ़ी-मेढ़ी मुड़-मुड़ जाएँ|
लहराती हुयी चल दे अचानक से,
लरज-लरज वो शरमा जाए|
छुपन-छुपायी खेले कहीं पे,
इधर-उधर आड़ ले छुप वो जाए|

पगडण्डी ढूँढती बसेरा पल-पल यूँ ही
बढती जाए,
दिन ही ना गुज़रे ये लम्बा.....
हफ्ते,साल फुर्र से उड़ जाएँ .....|

Friday 12 October 2012

" मेरी कल्पना का पारिजात"






सुलझे अनसुलझे से प्रश्नों की आंधी आती है !!
और मेरी कल्पनाओं के उस पारिजात के सारे पत्ते झड़ा जाती है। जिसमें अभी-अभी तुम्हारी स्मृतियों के पुष्प पल्लवित होने लगे थे।वृक्ष की कोपलों ने हरे-कच चमकीले पत्तों का आकार लिया ही था और उसकी शाखों  के सिरो पर नुकीली-नुकीली कलियों के गुच्छों में कुछ कलियाँ,श्वेत कोपलों और सिंदूरी वर्ण की शोभा से सज्जित सुंगंधित पुष्पों का रूप लेने के लिए रात्री की प्रतीक्षा कर रही थीं, आतुर थीं उन स्मृतियों की सुगंध बिखेरने को जो तुमसे मैंने उपहार स्वरुप पायी हैं।

 








चन्द्रमाँ की चांदनी बिखेरती हुयी यामिनी में जब रातरानी मुस्कुराती है,और कुमुद-कुमुदनी गाते हैं प्रेम के गीत, शीतल समीर बहती है मंद मुस्कान लिए, झींगुर के स्वर गूंजते हैं  निशा की गोद में।
ऐसे निरीह  वातावरण में कितना सुखद होता  तुम्हारी स्मृतियों की सुगंध में विलीन हो जाना,और सूर्योदय होते ही झर जाना निश्छल प्रेम के जैसे और बिखर जाना धरा पर हिमकणों के समान। शोभायमान कर देना उसको भी उस प्रेम की पराकाष्ठा की उस अद्भुत अनुभूति से,जो तुम्हारी स्मृतियों की सुगंध मात्र में विलीन होकर मैंने प्राप्त की होती।


कल्पना में ही सही ह्रदय को प्रेम की पराकाष्ठा की अनुभूति तो होती !!

अरे अभी तो पतझड़ आने में भी विलम्ब था !!
पर उस निष्ठुर आंधी ने जरा भी विचार न किया !!

हाँ निष्ठुर ही तो है,
जो प्रेम से ही अनभिज्ञ है।।
विदित नहीं जिसे,
मूक अक्षियों के आमंत्रण।।
ज्ञात नहीं जिसे अर्थ,
निःशब्द प्रेम  के वार्तालाप का।।
न सुन सके जो,
पलकों के उत्थान-पतन में निहित गाथा को।।
 नहीं पढ़ सके जो,
अधरों पर क्षत-विक्षत से पड़े वाक्यों को।।

तब से जब भी चलती है वह आंधी,
थाम लेती हूँ मस्तिष्क में ही उसको अपने।
ह्रदय तक पहुँचने ही नहीं देती उस निष्ठुर को !!
क्यूंकि  मेरी कल्पना के पारिजात के धवल पुष्पों को,
तुम्हारी स्मृतियों की सुगंध बिखेरना है अंतस में।।
और फिर प्रेम में तुम्हारे झर जाना है उन पुष्पों को,
समर्पित कर देना है अपने आप को तुम्हारे लिए।।

निः संशय यही प्रेम है !!

Sunday 7 October 2012

"कमल का फूल"



अपने एक मित्र के एल्बम में ये कमल के फूल देखते ही मन खुश हो गया ... काशी-विश्वनाथ मंदिर के बाहर किसी दुकान पर रखे इन कमल के फूलों वाली एक फोटो ने मुझे अपने ऊपर नज़रें टिकाने को मजबूर कर दिया जैसे।

पता नहीं क्यूँ,बचपन से ही कमल के फूल से मुझे बहुत प्रेम है,देखते ही जैसे एक आनंद की लहर सी उठती है मन में।
और कमल,वो भी जो भगवान को चढ़ना हो सहसा ही आकर्षित का लेते हैं मुझे।
लगता है अभी लूं उसको अपनी हथेलियों में और निहारूं देर तक उसकी सुन्दरता को,निर्मलता को  उसकी बसा लूं अपनी साँसों में और महसूस करूँ उसके ह्रदय की असीम कोमलता को,मानो वो मुझसे बातें करने लगता हो।
अजीब सा प्रेम उमड़ पड़ता है मन में उसके आर्द्र से स्वभाव पर, जो मन को शीतलता देता रहता है।मन करता है बस यूँही निहारती रहूँ उसे,हाथों में लेकर,पर उसकी मंजिल तो कहीं और ही होती है।उसे तो भगवान के चरणों में अर्पित होना है।

बातों ही बातों में कहता है मुझसे फिर वो,कि भेंट कर दो मुझे उस इश्वर के चरणों में कि मेरा जीवन सफल हो जाए।
मुझे कुम्हलाने में वक़्त नहीं लगता,और तुम्हे भी तो मैं कुम्हलाया हुआ पसंद नहीं ना !!
बहुत हो चुकीं बातें अब,छोड़ आओ मुझे उस मंदिर में,
जहाँ जाकर मैं धन्य हो जाऊं !!

सकुचा जाती हूँ मैं तभी, कि कैसे कठोर हो गया अचानक वो कोमल सा कमल का फूल मेरे प्रति!!
फिर मेरा विवेक मुझसे कहता है, सही तो कह रहा है ये कमल का फूल।
और चढ़ा आती हूँ जाकर उसको भगवान के चरणों में,सोच लेती हूँ कि मेरा प्रेम उसके साथ भगवान तक पहुच गया,और खुश हो जाती हूँ।

उसका जीवन सफल हो जाता है,और मेरी आस्था  की सरिता को नया किनारा मिल जाता है। 
शायद वो आस्था ही है जो उस कमल के फूल से मुझे जोड़े हुयी थी।

सही ही कहा था उसने-"तुम्हे भी तो मैं कुम्हलाया हुआ पसंद नहीं ना !"

"यकीन"



सांझ का वो ढलता हुआ सूरज ..... देखती हूँ रोज़ मैं।
मिन्नतें करके कई रोकती हूँ,
रोज़ उसको कि मत जाओ।
मत छोड़ो मुझे अंधेरों के आगोश में, 
कि ये रात नहीं कटती मुझसे।

छोटी सी इक पहाड़ी के पीछे से झांकता हुआ वो कहता है।
कल आऊंगा फिर से,
इंतज़ार करना मेरा।
और फिर  चाँद भी तो आएगा,
कुछ उसको भी तो सताओ ना।

मैं सहम सी जाती हूँ सुनकर उसकी रोज़-रोज़ वही बात।
कितनी बार समझाऊं उसको,
की चाँद से मेरा झगडा है।
फिर चुपचाप हो जाती हूँ,
कह देती हूँ अलविदा उसे।

उस पर यकीन करती हूँ मैं क्यूंकि वो अपना वादा रोज़ निभाता है।
कुछ देर सो भी जाती हूँ ये सोचकर ,
कि  आकर मुझे जगा ही देगा वो।
 रात भी कट जाती है कुछ,
इसी यकीन के साथ सुबह के इंतज़ार में।

कुछ सुकून तो आता है दिल को उसके कहे उन लफ़्ज़ों से।
उसने वादा अपना आज तक तोडा नहीं,
रोज़ सुबह आ जाता है मेरी खिड़की पे।
मुस्कुराता हुआ और कहता है,
लो मैं आ गया फिर से।

हाँ यकीन का है हमारा रिश्ता जो कभी नहीं टूटेगा।
काश ये  यकीन  जीवन का हिस्सा बन जाए,
और साथ-साथ चले हमेशा।
फिर नहीं सताएगा मुझे ये चाँद कभी,
और नाही  अंधेरों का डर।

"नाटक-नींद और मेरा रोज़"

 
 
रात से लेकर सुबह तक,जो रिश्ता है मेरा नींद से,
उसे थोडा बहुत निभाने की कोशिश करती हूँ.... रोज़...
कई बार झगडती हूँ नींद से मैं... रोज़...
समझाती है एक ही बात मुझे वो.... रोज़...
फिर मना ही लेती है आखिर नींद मुझे .... रोज़....

"नहीं मुझसे प्रीत तुझे तो बिसरा दे खयाल ये तू....की
सपने आएंगे इन आँखों में मीठे से !!
 
कुछ हसाएंगे कुछ शायद रुला भी जायेंगे....
पर क्या तू रह सकेगी उन सपनों के बिना ????
जो तुझे तेरे अपनों से मिला लाते हैं....
कभी-कभी परीलोक की सैर भी करा लाते हैं....
और कभी आकाश में स्वतंत्र विचरने का मौका देते हैं...
भूलाकर इस दुनिया के झंझट सारे तुझे अपनी एक अलग दुनिया में ले जाते हैं.... "

नहीं...!!
नहीं रह सकती उन सपनों के बिना मैं....!!
गले लगा ही लेती हूँ फिर नींद को.... रोज़...
और कहती हूँ क्यूँ सताती है तू मुझे.... रोज़....
आती नहीं है आँखों में नखरे हैं तेरे.... रोज़...
फिर मना ही लेती है आखिर नींद मुझे .... रोज़....

"कैसे भूल जाऊं"

 
तुम कुछ कहते नहीं मुझसे कभी,
पर तुम इशारा करते हो मुझे की भूल जाओ....!!

अरे कैसे भुला दूं उन लम्हों को .... उन नजारों को ... उन शामों को... उन दोपहरों को.. उस सफ़र को.... उन बातो को...और उन यादों को... जिसमे जिए हैं हज़ारों युग जैसे,हज़ारों खुशियाँ जी हैं जिसमें.... जो आज भी दिल के किसी कोने में सहेजी हुयी है मैंने,बिलकुल वैसे ही जैसे तुम्हारे दिए हुए ग्रीटिंग कार्ड्स सहेज रखें है... मैंने अलमारी के कोने में बने हुए एक लोकर में ....जब कभी खोल लेती हूँ उस अलमारी को.... और तुमसे नज़रें चुराकर देख लेती हूँ..... उन सजे हुए से कागज़ के टुकड़ों को..... देखकर कुछ तसल्ली पाता है दिल.... की इनमे अभी भी सहेजा हुआ है मैंने कुछ अंश तुम्हारे प्यार का.... पर तुम्हारे लिए तो ये अब सिर्फ सजे हुए कागज़ के टुकड़े ही हैं शायद ...!!

खटखटाती हैं दिल के दरवाज़े अक्सर वो यादें .... मुझे याद दिलाती रहती हैं उन लम्हों की.... बार-बार... !!
जब तुम्हारी बाहों में मानो कायनात पा ली थी मैंने... तुम्हारी आँखों में मिल गयी थी पनाह.....
हर सौगात मेरे जीवन की तुम पर थी न्योछावर और हर आरजू मेरे दिल की तुम्हारे लिए थी पागल....

बेरुखी दिल ये मेरा तुमसे रख सकता नहीं,उसके लिए तो उसे पत्थर का बनना होगा....!!
फिर कैसे भूल जाऊं????

हाँ ये आँखें अब पथरा चुकी.... छुपकर रोते-रोते,तुम्हारी वापसी की राह तकते-तकते.. पर तुम तो बहुत दूर निकल चुके हो शायद.... की जहाँ से मुड़कर देखने पर भी मैं तुम्हें नहीं दिखाई दूंगी अब तो .....
वीरान सी उस राह पर भटक रही हूँ तन्हा अब.... चाहकर भी तुमको आवाज़ लगाना मुश्किल है.....